कथाकार दीर्घ नारायण की कहानी भारत (न्यू) इंडिया के लोग पर समीक्षा गोष्टी का आयोजन




रामबाग स्थित साहित्यिकाश मंच ग्रीन हाऊस परिसर में प्रसिद्ध कथाकार दीर्घ नारायण की चर्चित कहानी भारत (न्यू) के लोग पर एक समीक्षा गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्टी के अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार देव नारायण पासवान देव ने की। जबकि मच संचालन का गोविंद कुमार ने किया। समीक्षा गोष्ठी की शुरुआत से पहले पूर्णिया के दिवंगत साहित्यकार पूर्णिया की साहित्यिक चौपाल चटकधाम से संबद्ध कवि कथाकार गौरीशंकर पूर्वोत्तरी को साहित्यकारों ने श्रद्धासुमन अर्पित कर उन्हें नमन किया। कथाकार दीर्घ नारायण ने कथा देश व नान्दी में प्रकाशित अपनी  चर्चित कहानी  'भारत (न्यू))के लोग' का पाठ किया और फिर बारी-बारी से मौजूद साहित्यकारों ने कहानी की समीक्षा करते हुए कहा अपने अपने 1946 विचारों को समीक्षात्मक टिप्पणी के रूप में व्यक्त किया । उपस्थित सभी समीक्षकों ने यह माना कि कथाकार दीर्घ नारायण की यह कहानी अपने समय से कहीं आगे है। लेकिन कहानी के प्रस्तुतीकरण में संवेदना के स्तर पर जहां तक लेखक को पहुंचना चाहिए था वहां तक शायद लेखक नहीं पहुंच पाए। इसके बावजूद इन्होंने जिस संवेदना के साथ एक महत्वपूर्ण मुद्दे को इस कहानी में उभारा है, वह मुद्दा सभी के लिए काबिलेगौर है। क्योंकि यह कथा लेखन के क्षेत्र में एक स्थापित नाम हैं इसलिए इनसे भविष्य में बहुत सारी अपेक्षाएं भी हैं। बाकी हम भारतवासी वर्तमान समय में जिस तरह से शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करना एक माईने मे भूलते जा रहे हैं या यूं कह ले कि जानबूझकर इससे कतरा रहे हैं यह स्थिति आने वाले समय के लिए निश्चित तौर पर घातक सिद्ध होगी ।

कहानी में कथाकार ने यह दर्शाया है कि किस तरह एक विदेशी शोधार्थी भारत  देश में आता है और भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति नतमस्तक होकर देश के कोने में घूम  घूमकर हर्षोल्लास के साथ अपना शोध पूरा करते हुए अचानक एक दिन  तब हताश हो जाता है जब उसके सामने एक विदेशी अखबार में छपी खबर आती है जिसमें उसे यह पता चलता है कि भारत देश के रामघाट नामक एक शहर की यात्रा के दरमियान एक बस में एक किशोरी का यौन शोषण किया जाता है और उस बस में बैठे लोग मूकदर्शक बने इस जुल्म के विरुद्ध आवाज उठाने से कतरा रहे हैं और इससे अपराधियों का मनोबल बढ़ता जा रहा है। वह  अपनी पहुंच और पैरवी की बदौलत मामले को दबाने में सफल हो पा रहे हैं। यह स्थिति उसे झकझोर कर रख देता है। वह सोच में पड़ जाता है कि  जिस भारत के प्रति  वैश्विक रूप से यह मान्यता है कि इस देश में नारी की पूजा होती है वहां आज ऐसी स्थिति क्यों ? और फिर उसके मन में वर्तमान भारत में उत्पन्न इस नयी दुष्कर स्थिति को लेकर कई सवाल उठने लगते हैं। वह बेचैन हो उठता है कि भारत के प्रति उसकी अवधारणा कहीं गलत तो नहीं थी? या फिर वाकई में भारतीय सभ्यता और संस्कृति आज भी वैसे ही है जैसी पहले हुआ करती थी। यहीं इस विदेशी किरदार के मन में उत्पन्न सवालों के माध्यम से कथाकार के द्वारा वर्तमान समय में आदमी का आदमी के प्रति संवेदनहीन होने की स्थिति पर समय रहते सचेत होने के लिए इशारा किया जाता है जो कहानी का मूल संदेश है। इस समीक्षा गोष्ठी में आकाशवाणी के पूर्व निदेशक प्रभात नारायण झा, विजयनंदन प्रसाद समेत कथाकार चंद्रकांत राय, कथाकार सुरेंद्र शोषण, कथाकार दीपक कुमार अज्ञात, चर्चित आलोचक  डॉ रामरेश भक्त,साहित्यिक पत्रिका लक्ष्य के संपादक, यमुना प्रसाद प्रसाद बसाक, पूर्णिया कॉलेज के प्राचार्य प्रोफेसर(डा0) शंभू लाल वर्मा उर्फ डॉ0 शंभू कुशाग्र, आशु कवि गिरजानंद मिश्र, धमधाहा कॉलेज के प्राचार्य प्रोफेसर गिरीश कुमार सिंह, व्यंग्य विधा से जुड़े संजीव सिंह, समाजसेविका नयनतिका, अरुण कुमार यादव सहित अन्य प्रबुद्ध जन शामिल हुए। उपस्थित सभी साहित्यकारों के समीक्षात्मक टिप्पणी के बाद अंत में कथा समीक्षा में विशेष दखल रखनेवाले बुजुर्ग साहित्यकार प्रोफेसर देवनारायण पासवान 'देव' ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि कहानी की समीक्षा जिस रूप में होनी चाहिए थी लगभग वह हो चुकी है । लेकिन मैं लेखक का ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगा कि एक कथाकार के आंखों में एक माँ की की तरह करुणा और क्रोध दोनों एक साथ दिखाई देना जरूरी है जैसे एक मांँ अपने बच्चों के प्रति पूर्णता स्नेह रखती है और उसके जीवन को संवारने के लिए उसे डांटती फटकारती भी है ठीक उसी तरह कहानी के प्रस्तुतीकरण में भी इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि, हम जिस चीज को प्रस्तुत कर रहे हैं उसमें लेखक की निजी संवेदना के साथ-साथ विभिन्न किरदारों के चरित्र चित्रण की मांग के अनुरूप जैसी संवेदना की आवश्यकता हो उसे उकेरना ही चाहिए ।

  

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